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तुमको है सौगंध

तुमको है सौगंध, आज फिर जलने की इन भ्रातिम लहरों से डटकर, चलायमान पवनो से लड़कर, अडिग खड़े तुम अमर हिंद में  प्राण देश हित में करने की । तुमको है सौगंध आज फिर जलने की ।। फैली मतभेदों की जड़ता , मिटा रहे ये, भारत की गुरुता एक माला के मोती बनकर , एक सूत्र में चलने की ।  तुमको है सौगंध, आज फिर जलने की ।। चंहुदिश अब है,विघ्न भरा सब  जनमानस रोदन है पराश्रव्य,  दु:ख रंजित जन के मन में, नव ज्वाला से दुख हरने की । तुमको है सौगंध,आज फिर जलने की ।। - sugandh mishra  

दोस्ती किसी उसूल की मोहताज नहीं

मुझे नहीं आते दोस्ती के उसूल और कायदे  अब कोई दोस्ती का मतलब न सिखाए मुझको, मैंने कभी नहीं चाहा है बुरा किसी का, मगर ख्वाहिश भी नहीं कि कोई चाहे मुझको । बहुत देखे है यार मैंने भी इस जमाने में, जिसका दिल ना मिले वो गले न लगाए मुझको। मेरी हर बात पे अब कोई टोके हरदम , यूं झूठी तारीफें न दिखाए मुझको । जो भी कहना है, आके मुंह पे कह दे  चुपचाप से दिल में न दबाए मुझको । अगर दोस्ती न सही तो नफरत ही सही  मगर हार के यू न हटाए मुझको । और नफरत भी करना है तो पूरी सिद्दत से करे, कि अपने मन के हर कोने से जलाए मुझको  जिसे भी लगता है कि मै किसी काबिल नहीं हूं वो पास आए और आके आजमाए मुझको । - Sugandh

Mareez e Poetry

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🖤कोई आये तो देखेगा कि हूँ अजीब सा अपने कमरे में बिखरा पड़ा हुआ हूँ बेतरतीब सा अपने कमरे में । दिन भर सब लगे रहे किताबो और कक्षाओं के फेरों में , और मैं कविता लिखता रहा एक अजीज़ सा अपने कमरे में, सब दौड़ते भागते चढ़ रहे उम्मीदों की सीढ़ियों पे और मैं हूँ कि सो रहा हूँ किसी मरीज़ सा अपने कमरे मे । है बाहर की दुनिया भी नीरस और मसरूफ बस, मिलता तो है इक सुकून सा अपने कमरे में  । मिल जाता है  किस्मतों से ,सोना भी कचरे में , मैं हूँ कि बंद हूँ किसी नसीब सा अपने कमरे में ।  Sugandh                                 

who is responsible for destruction and wrath ?

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पहले इंसान आया, फिर विज्ञान आया फिर इंसान ने विज्ञान को पहचाना  फिर इंसान और विज्ञान एक हुए फिर दोनों ने मिलकर हथियार बनाए समय बीतता गया  दुनिया बदलती गई  प्रेम की जगह हो गई ईर्ष्या । विकास तो होता रहा, पर सहन शक्ति कम होती रही। कलम की जगह हथियार ने ले ली विद्यार्थी अब धरने पर बैठने लगे शाहीन बाग में गोलियां चली जागरूकता रैली की बजाय  विरोध की रैलियां होने लगी जाति धर्म भेदभाव जन्म लेने लगा सांप्रदायिकता की आग फैलने लगी अब मानव ही मानव का शत्रु बन गया   गोरे लोग काले को मारने लगे हिंदू मुस्लिम को मारने लगा  और मुस्लिम हिंदू को वे हथियार जिनका अविष्कार हुआ था, अपनी ग्रह पृथ्वी को बचाने के लिए, अब वो हथियार अपने ही लोगों पर बरसने लगे इंसानियत रो-रोकर चिल्लाने लगी अब न किसी को पेड़ बचाने थे  ना जल संरक्षण का कोई विषय था हवा दूषित हुई लोग मरने लगे प्राण वायु अब प्राण लेने लगी कोरोना जैसे वायरस आ गए  मनुष्य(बेटा) ने प्रकृति(बाप) के साथ खेला और प्रकृति ने मनुष्य के साथ । तो बाप जीतेगा या बेटा ? सुनो, हिन्दुओं मुस्लिमों सिक्खों ईसाइयों  जाति धर...

तुम साथ ही तो हो

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             " तुम साथ ही तो हो " तुम्हें याद करना, सचमुच किसी हसीं आरज़ू को तराशने सा है।  चाँद पिघलकर आँखों में उतर आता है, बेरंग पानी सा बनकर, तुमको सोचने लगूँ तो। लहलहाने लगते हैं पलकों की कच्ची पगडंडियों के किनारे बसे हुए ख़्वाबों के खेत, और खिल उठती  है नन्ही कलियाँ गुदगुदाती ख्वाहिशों की।  साँझ की बहती नदी, क्षितिज के पत्थरों से टकरा कर लौटने लगती है।  रात के हाथ से छूट जाता है पैमाना अँधेरे का , छिटक कर बिखर जाती है, हर ओर हवा में,  किसी इत्र की तरह तुम्हारे एहसास की खुशबू । छाने लगती है हर शय पर तुम्हारे होने की खुमारी। तुम बस कहने को नहीं होते हो साथ, वरना साँस का हर रेशा, बुनता है तुम्हारे नाम के धागे।  बुझ जाते हैं मायूसियों के कई जलते दीये।  भरने लगती हैं वक़्त की दी हुई कई ख़राशें।  और मानने लगता हूँ मैं, खुद को  दुनिया का सबसे ख़ुशनसीब शख़्स क्योंकि इतना सच्चा और मासूम है मेरे ख़्यालों का ये हिस्सा कि चाहे कितना कुछ भी न हो मेरे पास, मैं खुद को कभी अधूरा नहीं लगता।  वहम ही सही पर 'मो...